Thursday 21 September 2017

आज फ़िर बचपन याद आया


वो बचपन, वो गैय्या, वो पीपल की छैय्या
वो यादोँ की कश्ती में, गोते लगाती मेरी नैय्या,
आज फ़िर बचपन याद आया.....

वो चिड़िया की ची-ची, वो कोयल की कूं-कूं
वो कौए का काँव-काँव,
और मैया का मेरी सुबह मुझको जगाना
आज फ़िर बचपन याद आया.....

सुबह की चाय से दिन बन जाना,
नींद में अनचाहे तैयार होना,
रोते-रोते स्कूल को जाना,
मिलते ही यारों से सब भूल जाना,
आज फ़िर बचपन याद आया.....

स्कूल में लंच और बस छुट्टी का इंतज़ार,
दोस्तों से मिलना और मस्ती हज़ार,
घर पर मिले माँ के हाथ का खाना और प्यार बेशुमार,
आज फ़िर बचपन याद आया.....

वो दोस्तों का हर त्यौहार पर आना,
खुशियों में आकर चार-चाँद लगाना,
रोते को हँसाना, रूठे तो मनाना
हमेशा साथ रहने की वो “मम्मी की कसम” खाना,
आज फ़िर बचपन याद आया.....

ना जाने कहाँ गया,
उन स्कूल वाले दोस्तों का साया,
आँख भर आई और ख़ुद को तन्हा पाया,
मतलबी और धोखेबाजी ने दोस्ती पर से विश्वास उठाया,
तब फ़िर वही बचपन याद आया.....



#Devprabha_Paridhi

काश! तुम समझ पाते...


काश! तुम ये समझ पाते,
काश! तुम वो समझ जाते...
पर तुम ना समझ पाये,
फ़िर भी ठीक ही है सब कुछ,

जो तुम सब समझ जाते,
तो फ़िर यूं जी भी ना पाते,
और शायद.....
तब मैं भी ना जी पाती तुम्हारे बिन,

ये जो तन्हाई यूं आराम से कटती है अकेले बैठकर,
वो बिन तुम्हारे फ़िर इतनी सरल तो ना होती,

फ़िर....
कुछ यादें, वो बातें, कुछ रस्में और वादे,
सब घेरते मुझे हर दम,
और छीन लेते मुझसे मेरी तन्हाई,
और हर इक़ गम...

पर जो तुम ना समझ पाये,
तो ही ठीक है सब कुछ....
काश! तुम ये समझ पाते,
काश! तुम वो समझ जाते...



#Devprabha_Paridhi

Sunday 10 September 2017

आदत


आदत बहुत जल्दी हो जाती है किसी इंसान को| चाहे वह किसी बात की हो, किसी काम की या.... किसी इंसान की|
कभी कुछ काम किया तो उसकी आदत हो गई तो कभी कुछ दिन नहीं किया तो उसमें ढल गये|
कभी किसी से बात करने लगे तो कुछ दिन में उसकी आदत हो जाती है, तो बात ना होने पर बिना बात किये रहने की भी आदत हो जाती है|
      कभी किसी नयी जगह रहने लगे तो कुछ दिन अटपटा महसूस करने के बाद आदत हो जाती है, फ़िर कभी वो जगह छोड़ देने के बाद वहाँ ना रहने की भी आदत हो जाती है|
      कभी तन्हा रहने वाले को कोई भीड़ में पसंद आ जाये तो भीड़ भी अच्छी लगने लगती है, तो कभी वही उस भीड़ में भी तन्हा हो जाता है|
      इंसान भी कितना अजीब है ना! आदतों का मारा हुआ|
      मुझे भी तो नहीं थी ना किसी के साथ की आदत| किसी से गुफ़्तगू की आदत| लेकिन हो ही गयी ना जब ‘तुम’ आये| दूर तो तुमसे भी जाने की कोशिश बहुत की थी मैंने| लेकिन फ़िर तुम्हारे साथ की आदत हो गयी| तुमसे बातें करना हर रोज़| तुमसे बात किये बिना लगता जैसे घुटन होने लगी हो| बिना मिले एक दिन भी सदियों सा लगने लगता| बस तुम्हेँ देख लेती तो लगता, सब कुछ मिल गया हो जैसे|
आदत हो गयी थी मुझे, तुम्हारी| और अब देखो!
फ़िर से तन्हा रहने की भी आदत हो गयी है..... पहले की तरह| अब ख़ुद से ही कर लेती हूँ ढेरों बातें..... फ़िर से| अब अकेली ही रहती हूँ| भीड़ में भी और तन्हाई में भी..... हमेशा की तरह|
तुम्हेँ भी तो हो गयी होगी ना आदत..... मेरे बिना रहने की? तुम तो पहले से ही आदी थे मेरे बिना रहने के, तभी तो चले गये चुपचाप|
      खैर, आदत’ हो ही जाती है|
#Devprabha_Paridhi

Monday 4 September 2017

आख़िर कैसा हो वो?


प्यार पर यकीं है मुझे, कान्हा में आस्था है मेरी...
पर कैसे करूँ किसी के प्यार का विश्वास,
जब सबके प्यार को है बस मतलब की आस |

मेरे ये विचार जिन्हें पसंद नहीं आते,
वो अक्सर मुझसे यही है पूछते-
“आख़िर कैसा हो वो जो पसंद तुम्हेँ आये?”

मेरा सीधा सा जवाब-
वो जो सौम्य हो, शीतल हो...
प्रेम जिसका अविरल हो,
नैन जिसके मुझसे सारी बातें बयाँ कर दे,
शब्दों को कभी कुछ कहना ना पड़े...
स्वभाव जिसका शांतिमय हो,
वाणी जिसकी मधुमय हो,
प्रेम पे जिसके मैं वारी जाऊं
नज़रों से सबकी बचकर उसी की हो जाऊ,
क्रोध, घमंड उसकी दुनिया में ना हो,
सबके दिलों पर राज़ करने वाला स्वभाव हो
संग उसका मुझे अनुपम एहसास कराये,
ख़ुशियाँ हमारे आस पास मंडराए,
एक-दूजे की दुनिया का ख़ालीपन हम भर दे,
बस! इतनी सी ख्वाहिश वो मेरी पूरी कर दे |

एक_बार_आना_ज़रूर!

बेवज़ह तन्हा सी ज़िन्दगी में तुम्हारा यूं वजह बनकर चुपचाप चले आना, आज भी अच्छी तरह याद है मुझे| कब तुमने मुझपे सारे हक़ ले लिए और कब तुम मेरा सब कुछ बनते चले गये, पता ही नहीं चला| हर बात में तुम आते गये, हर साँस में घुलते चले गये|
ज़रूरत तो नहीं थी लेकिन ख्वाहिश थी किसी के होने की..... हमेशा से ! और वो तुमने आकर पूरी कर दी| वक़्त बीतता गया और तुम, मुझमें साथ-साथ और साँस-साँस एक होते चले गये|
      उस वक़्त एहसास ही नहीं हुआ कभी की हम दो है| सब कुछ एक ही लगता था|
तुम.....मैं........मैं.....तुम | बस इतना ही |
जिस्मों से नहीं, रूह से रिश्ता था हमारा....क्योंकि जिस्मों से तो ज़रूरते पूरी होती है ना| तुम भी तो यही कहते थे |
फ़िर.......!!!
क्या हुआ था उस दिन? मेरा तो वो दिन भी अब तक ख़त्म ही नहीं हुआ | तुम ही बता दो ना|
चले गये बस तुम...क्यों? कहाँ? किसलिए? कुछ भी नहीं बताया | किसकी कमी थी जिसके लिए तुम्हारी तलाश मुझ पर ख़त्म नहीं हुई | क्या था जो तुम्हेँ हमारे इस रिश्ते से ज़्यादा गहरा लगा और तुम चले गये|
“रूह की गिरफ़्त भी कमज़ोर हो चली,
दिलों को पिरोने की वो सुई कहाँ गयी...?”
जिस दिन तुम्हेँ पता चल जाए और तुम्हारी तलाश ख़त्म हो जाये तो एक बार मुझे बताना ज़रूर |
मेरी ग़लतफ़हमियां ख़त्म करने के लिए ही सही एक बार आना ज़रूर|

#Devprabha_Paridhi